इटावा: उत्तर प्रदेश के इटावा का कांग्रेस से एक दिलचस्प नाता है। 1857 में जब देश में क्रांति की ज्वाला धधकी थी तब एओ ह्यूम यहां के कलेक्टर हुआ करते थे। यह वह ह्यूम हैं, जिन्होंने 28 दिसंबर 1885 को कांग्रेस की स्थापना की थी। चंबल और यमुना के बीच स्थित इस क्षेत्र का नाम ईंट के कारोबार से जोड़ा जाता है। हालांकि, यहां की सियासत में अपनी नींव मजबूत कर उम्मीदों की इमारत खड़ी करना सियासतदानों के लिए हमेशा मुश्किल रहा है। चेहरों को परखने की कसौटी इतनी कड़ी है कि एक बार जीतने के बाद यहां अगली बार के लिए कोई भी खुद को ‘सुरक्षित’ समझने की स्थिति में नहीं रहा। अब तक के संसदीय चुनावों में एक चेहरे को छोड़कर कोई भी ऐसा नहीं हुआ, जिसे इटावा की जनता ने लगातार मौका दिया हो।1957 में इटावा संसदीय क्षेत्र का स्वतंत्र अस्तित्व बना तो पहले चुनाव में ही यहां की जनता ने समाजवाद का रंग गाढ़ा किया और सोशलिस्ट पार्टी से अर्जुन सिंह भदौरिया चुने गए। 62 में बाजी कांग्रेस के जीएन दीक्षित के हाथ लगी तो अगले चुनाव में फिर अर्जुन सिंह ने संयुक्त सोशलिस्ट पार्टी के टिकट पर लक्ष्य भेदा। 71 में इटावा इंदिरा के ‘गरीबी हटाओ’ के नारे पर रीझ गया तो 77 में जेपी के ‘इंदिरा हटाओ’ के नारे के साथ बह गया। यह लहर इतनी तेज थी कि जनता पार्टी के उम्मीदवार अर्जुन सिंह भदौरिया की झोली में 75% से अधिक वोट गिरे।जनता पार्टी को 1980 में भी जीत मिली, लेकिन चेहरा बदल गया। इस बार राम सिंह शाक्य चुने गए। इंदिरा की हत्या के बाद सहानुभूति के सुर में इटावा ने भी सुर मिलाया और 84 में कांग्रेस के रघुराज सिंह जीते। हालांकि, इसके बाद कांग्रेस के लिए इटावा की ज़मीन बंजर हो गई और अब तक उसे यहां सफलता नहीं मिली है।मिले मुलायम- कांशीराम
90 के दशक में यूपी की सियासत में नया प्रयोग हुआ। ‘कमंडल’ की धार रोकने के लिए ‘मंडल’ की राजनीति को पैना कर रहे मुलायम सिंह यादव और यूपी में दलित राजनीति का नया अध्याय लिख रहे कांशीराम ने हाथ मिला लिया। 1993 के विधानसभा चुनाव में नेताओं व जातियों की इस नई जुगलबंदी ने अयोध्या में विवादित ढांचे के गिरने से आए भाजपा के राजनीतिक उफान को थाम लिया। इस दोस्ती की जमीन तैयार की 1991 के लोकसभा चुनाव ने।बसपा संस्थापक कांशीराम इसके पहले के चुनावों में हाथ आजमाने के बाद भी संसद तक नहीं पहुंच पाए थे। उन्होंने इस बार इटावा से पर्चा भरा। मुलायम जनता दल में थे। तत्कालीन सांसद राम सिंह शाक्य पार्टी के उम्मीदवार थे। मुलायम ने अपने उम्मीदवार को छोड़कर कांशीराम पर दांव लगा दिया। इटावा मुलायम का गृह जिला था। जनता को यह दोस्ती रास आई और कांशीराम को पहली बार लोकसभा पहुंचा दिया। दूसरे नंबर पर भाजपा रही।1996 के चुनाव के पहले मुलायम की अपनी पार्टी सपा अस्तित्व में आ चुकी थी। पहले चुनाव में ही उसे यहां जीत मिली, लेकिन भाजपा के मुकाबले वोट का अंतर महज 9 हजार का था। भाजपा की उम्मीदवार सुखदा मिश्रा ने 98 में इस अंतर को पाट दिया और यहां पहली बार कमल खिला।